यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ान
' ग़ालिब '
ग़ज़ल in -आर
ये न थी हमारी क़िस्मत कि
विसाल-ए-यार
होता
अगर औरर जीते रहते यही इन्तिज़ार
होता । । १ । ।
तेरे वादे पर जिये हम तो
ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार
होता । । २ । ।
तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था
अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तवार होता । । ३ । ।
कोई मेरे दिल से पूछे
तेरे तीरे नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो
जिगर के पार होता । । ४ । ।
ये कहाँ की दोस्ती है कि
बने हैं दोस्त नासिह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता । ।
५ । ।
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर
न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर
शरार होता । । ६ । ।
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है पे कहाँ बचें
कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
। । ७ । ।
कहूँ किससे मैं कि क्या
है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार
होता । । ८ । ।
हुए मरके हम जो रुस्वा, हुए क्यों न गर्क़-ए-दरिया ?
न कभी जनाज़ा होता, न कहीं मज़ार होता । । ९ । ।
उसे कौन देख सकता, कि यगाना है वो यक्ता ?
जो दुई की बू भी होती,
तो कहीं दोचार होता
। । १ ॰ । ।
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ! यह
तेरा बयान, ' ग़ालिब ' !
तुझे हम वली समझते जो न
बादाख़्वार होता । । १ १ । ।
To glossed version of ग़ज़ल in आर
To Fran Pritchett's annotated
version in "Desertful of
Roses".
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Keyed in 17 Oct 2001. Posted 21 Oct 2001. Corrected 24 Oct 2001.